किसान : किसान आंदोलन ने लिया नया रूप, प्रशासन ने पक्के मकान बनाने से रोका तो किसानों ने बीच का रास्ता निकाल बनाई झोपड़ियां

एचआर ब्रेकिंग न्यूज। किसानों ने अपनी मांगों को पूरा करने के लिए दिल्ली बोर्डर को ही अपना आशियाना बना लिया है। दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसानों के आंदोलन का स्वरूप लगातार बदल रहा है। सर्दियों में जहां हाईवे पर ट्रैक्टर और ट्राॅलियों की भी भीड़ दिखती थी, वहां माहौल अब बिल्कुल अलग है।
 

एचआर ब्रेकिंग न्यूज। किसानों ने अपनी मांगों को पूरा करने के लिए दिल्ली बोर्डर को ही अपना आशियाना बना लिया है। दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसानों के आंदोलन का स्वरूप लगातार बदल रहा है। सर्दियों में जहां हाईवे पर ट्रैक्टर और ट्राॅलियों की भी भीड़ दिखती थी, वहां माहौल अब बिल्कुल अलग है। ट्रैक्टर धीरे-धीरे निकल गए हैं और तिरपाल वाली ट्राॅलियों की जगह बांस की झोपड़ियों से लेकर ट्राॅलियों में एसी वाले हाईटेक मकान बन गए हैं। दूर से देखने पर लगता है कि किसानों का कोई अनोखा गांव यहां बस गया है।

आलू ने किसानों को रुलाया: उत्पादन तो बढ़ा, मगर बाज़ार में भाव गिरे

यह लोगों के आराम का मामला है इसलिए इस पर किसान खूब पैसे भी खर्च कर रहे हैं। एक बांस की सामान्य झोपड़ी बनाने में ही करीब 20 हजार का खर्च रहे हैं। वहीं, टीन से लेकर एल्युमिनियम की झोपड़ी और ट्राॅली के अंदर एसी से लेकर हाईटैक मकान तैयार हो गए हैं। इसका फायदा उन कारीगरों को भी हुआ है जिनको इससे काम मिला है। बॉर्डर पर रोज नई झोपड़ियों का निर्माण हो रहा है, जहां तक नजर जाती है वहीं तक झोपड़ी ही नजर आती हैं। किसानों ने झोपड़ियों की छतों पर फोम की सीट लगा रखी हैं, ताकि छत गर्म न हों। कुछ किसानों ने अंदर से झोपड़ियों की मिट्टी से लिपाई कर रखी है, जिससे दीवारें ठंडी रहें।

बिखरे अरमान : आशियानों से निकलती आग की लपटो को देख गरीबों के अरमान भी जले

एक झोपड़ी के अंदर बैठे किसान रामकुमार ने बताया कि ट्रैक्टरों और ट्राॅलियों की अब खेत में जरूरत है, इसलिए उन्हें भेज दिया है। अभी पता नहीं आंदोलन कितना लंबा चलेगा। इसलिए पक्के मकान बनाने लगे थे, प्रशासन ने रोका तो हमने बीच का रास्ता निकालकर झोपड़ी बनवानी शुरू कर दी।

दिल्ली-नेपाल से आए हैं झोपड़ी बनाने वाले-एक झोपड़ी बनाने में 2 से 3 हजार तक बच रहे


बॉर्डर पर बांस की झोपड़ियों का चलन अभी सबसे ज्यादा है। इस तरह की झोपड़ी बनने का काम जहां बंद होता जा रहा था, वहीं आंदोलन में इसे आशा की नई किरण दिखाई दी है। झोपड़ी बना रहे उत्तम कुमार ने बताया कि वो और उनकी टीम दिल्ली से आए हैं। बांस खुद लेकर आते हैं और तिरपाल आदि मालिक को लाना पड़ता है। एक 10 बाई 10 की झोपड़ी 20 हजार तक में बनाकर दे रहे हैं।

एक झोपड़ी बनाने में उन्हें 3 दिन का समय लगता है और एक झोपड़ी पर 2 से 3 हजार रुपए बचते हैं। उनकी टीम 50 से ज्यादा झोपड़ी बना चुकी है और इस तरह की कई टीम दिल्ली से इस काम के लिए बॉर्डर पर आई हुई हैं। उत्तम कहते हैं कि आंदोलन से उन्हें काफी काम मिला है। इस तरह की झोपड़ियों का पुराने समय में चलन था या फिर कुछ लोग शौक के लिए बनवाते थे, लेकिन आंदोलन के कारण बड़ी संख्या में बनी हैं।

मजबूत और सुंदर बना रहे इसलिए रेट भी ज्यादा


बांस से झोपड़ी बनाने के लिए कारीगरों की टीमें नेपाल से भी आई हुई हैं। ऐसे ही एक कारीगर प्रदीप घिमिरे ने बताया कि उनके यहां की कई टीमें कुंडली, टिकरी और गाजीपुर में आई हुई हैं। दिल्ली में रहने वाले उनके कुछ साथी भी सहयोग करते हैं। घिमिरे ने बताया कि हम केवल झोपड़ी बनाने का काम करते हैं, बांस और बाकी सामान खुद मालिक को लाना होता है।

हम केवल बनाने के 5 से 8 हजार तक लेते हैं। इसलिए हमारे वाली महंगी पड़ती है और सामान समेत उसकी लागत 25 से 30 हजार तक आ जाती है, लेकिन हम मजबूत बनाने के साथ उसे मॉडर्न लुक भी देते हैं। हालांकि हमारे पास काम दूसरी टीमों के मुकाबले कम है, क्योंकि यहां किसानों को सस्ती और अस्थाई झोपड़ी चाहिए हैं। फिर भी आंदोलन ने हमारे काम को नया जीवन देने का काम तो किया है।