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बिना फेरे और मंत्रोचारण के हुई शादी की वैधता को लेकर Supreme court ने कह दी ये बात

Supreme court decision : हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका को रद्द कर दिया है जिसमे बिना फेरों के हुई शादी को अवैध बताया था और कोर्ट ने इसको लेकर अपना ये तर्क दिया है | आइये जानते हैं 

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HR Breaking News, New Delhi : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के फैसले के बाद आत्मसम्मान marriage पर पूरे देश में बहस छिड़ी हुई है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के बाद कहा कि जीवन साथी को चुनना मौलिक अधिकार है. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि हिंदू marriage अधिनियम, 1955 की धारा 7 (ए) के तहत 'आत्मसम्मान' marriage या 'सुयमरियाथाई' को सार्वजनिक समारोह या घोषणा की आवश्यकता नहीं है.

इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court)  ने मद्रास उच्च न्यायालय के 2014 के फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि अधिवक्ताओं द्वारा कराई गई शादियां वैध नहीं हैं और ‘सुयमरियाथाई’ या ‘आत्म-सम्मान’ marriage को संपन्न नहीं किया जा सकता है.

Supreme Court ने कहा, India या भारत... जो मन है कहिए, और रद्द करदी याचिका


सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में लाया गया नियम
सुप्रीम कोर्ट ने 29 अगस्त को आत्मसम्मान marriage पर फैसला सुनाया है. जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, तमिलनाडु में संशोधित हिंदू marriage कानून के तहत वकील परस्पर सहमति से दो वयस्कों के बीच 'सुयमरियाथाई' (आत्मसम्मान) marriage संपन्न करा सकते हैं.

इस मामले में जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया. इसके साथ ही पीठ ने याचिका मंजूर कर ली, लेकिन इस याचिका में ये भी कहा गया कि वकील अदालत के अधिकारियों के रूप में पेशेवर क्षमता में काम नहीं कर रहे हैं, बल्कि व्यक्तिगत रूप से दंपती को जानने के आधार पर वो कानून की धारा-7(ए) के तहत marriage करा सकते हैं.

क्या है आत्मसम्मान marriage का मकसद
तमिलनाडु सरकार ने 1968 में, सुयमरियाथाई marriage को वैध बनाने के लिए कानून के प्रावधानों में संशोधन किया था. इसका मकसद किसी भी शादी की प्रक्रिया को सरल बनाते हुए ब्राह्मण पुजारियों, पवित्र अग्नि और सप्तपदी (सात चरण) की अनिवार्यता को खत्म करना था.  

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क्या है आत्मसम्मान marriage?
1968 में हिंदू marriage  (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम, 1967 पारित किया गया. जिसमें धारा 7A के तहत हिंदू marriage अधिनियम 1955 को संशोधित किया गया था.


ये विशेष प्रावधान उन दो लोगों को बिना किसी रीति-रिवाज का पालन करते हुए उन दो लोगों को शादी करने की अनुमति देता है, जिनकी उम्र कानूनी रूप से शादी के लायक हैं.

हालांकि ऐसी marriage को कानूनी रूप से पंजीकृत करना भी जरूरी है. ऐसी शादियां आमतौर पर रिश्तेदारों, दोस्तों या अन्य लोगों की मौजूदगी में की जा सकती हैं.
आत्मसम्मान marriage में पुजारी, अग्नी या किसी भी शादी के रीतियों का पालन करने की जरुरत नहीं होती. दो लोगों द्वारा अपने जानने वालों की मौजूदगी में एक-दूसरे को पति-पत्नी मान लेना भी इस marriage को स्वीकृत करता है.


कहां से आया था आत्मसम्मान marriage का विचार?

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तमिल समाज सुधारक पेरियार ने 1925 में आत्मसम्मान आंदोलन का नेतृत्व किया था. जिसका मकसद जात-पात के भेदभाव को दूर करना और समाज में जिन जातियों को नीचा दिखाया जाता है उन्हें समाज में एक समान अधिकार दिलाना था. आत्मसम्मान marriage को आत्मसम्मान आंदोलन के एक बड़े हिस्से के रूप में तैयार किया गया था.
पहला स्वाभिमान marriage 1928 में हुआ था. जिसे खुद पेरियार ने संपन्न कराया था. जिसमें दो जातियों के भेदभावों को दूर कर, दो लोगों के एक-दूसरे के साथ जीने की आजादी की मांग भी थी. ये शादियां किसी भी जाति में की जा सकती हैं.

High court की कार्रवाई से फिर सामने आया मामला
मई 2023 में मद्रास हाई कोर्ट ने तमिलनाडु राज्य बार काउंसिल के उन वकीलों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का आदेश दिया था जो अपने कार्यालयों या ट्रेड यूनियन कार्यालयों में गुप्त शादियां करवा रहे थे और साथ ही marriage प्रमाण पत्र भी जारी कर रहे थे.

हाईकोर्ट (high court) के मदुरै पीठ के जज एम. धंदापानी और न्यायमूर्ति आर. विजयकुमार की पीठ ने कहा कि आत्म-सम्मान marriage सहित सभी विवाहों को तमिलनाडु marriage पंजीकरण अधिनियम, 2009 के तहत पंजीकृत किया जाना चाहिए. साथ ही उन्होंने कहा कि इसके लिए पार्टियों को अदालत में उपस्थित भी होना होगा.

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उच्च न्यायालय (Supreme Court)  ने एस बालाकृष्णन पांडियन मामले में अपने 2014 के फैसले को सही ठहराया, जिसमें कहा गया था कि वकीलों के कार्यालयों और बार एसोसिएशन के कमरों में गोपनीयता से की गई शादी कानून के तहत वैध शादी नहीं हो सकतीं.

एक अन्य कानून भी धर्म निरपेक्ष marriage को देता है मंजूरी
'आत्मसम्मान marriage' के अलावा एक अन्य कानून भी धर्म निरपेक्ष marriage को नियंत्रित करता है. वो है विशेष marriage अधिनियम. 1872 में ब्रिटिश सरकार द्वारा अंतर-धार्मिक marriage की अनुमति देने के लिए कानून बनाया गया था, जहां किसी भी पक्ष को अपने संबंधित धर्म को त्यागना नहीं पड़ता था.

इस अधियनियम के तहत उचित नियमों का पालन करने के बाद दो लोग धर्म निरपेक्ष marriage में बंध सकते हैं. इस अधिनियम को 1954 में संसद द्वारा तलाक और अन्य मामलों के प्रावधानों के साथ फिर से पारित किया गया.

यह अधिनियम पूरे भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध (Hindu, Muslim, Sikh, Christian, Jain and Buddhist)सहित सभी धर्मों के लोगों पर लागू होता है. इस तरह के marriage करने की इच्छा रखने वालें लोगों को उस जिले के marriage अधिकारी को लिखित रूप में एक नोटिस देना जरूरी है, जिसमें नोटिस से ठीक पहले कम से कम एक पक्ष उस जिले में कम से कम 30 दिनों तक रहा हो.

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शादी होने से पहले, शादी करने वाले दोनों लोगों को और तीन गवाहों को marriage अधिकारी के सामने एक घोषणा पत्र साइन करना होता है, जिसके बाद शादी करने वाले लोगों को शादी का प्रमाण पत्र दिया जाता है.

इस कानून के तहत सबसे अधिक आलोचना प्रावधानों में से एक धारा 7 है, जिसके तहत कोई भी व्यक्ति नोटिस दिए जाने की तारीख से तीस दिन पहले इस तरह की शादी पर इस आधार पर आपत्ति कर सकता है कि ये अधिनियम की धारा 4 की शर्तों का उल्लंघन होगा.

ऐसे मामलों में यदि कोई आपत्ति की गई है तो संबंधित marriage अधिकारी तब तक marriage नहीं करा सकता, जब तक कि मामले की जांच न हो जाए और वो संतुष्ट न हो जाए कि ये आपत्ति marriage के खिलाफ नहीं है.

या जब तक वो व्यक्ति अपनी आपत्ति वापस नहीं ले लेता. इस प्रावधान का उपयोग अक्सर इस तरह की शादियों में परेशानी खड़ी करने के लिए किया जाता है.

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