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Business idea: पक्षियों के पंखों से बना दिया पश्मीना से भी मुलायम कपडा, कमा रहे हैं करोड़ों रूपए

हर कोई कामयाब होना चाहता है और पैसे कमाना चाहता है जिसके लिए कोई न कोई नया तरीका खोज लिया जाता है। ऐसा ही एक अलग तरीका खोजा है हमारे देश के युवा दम्पत्ति ने , जिन्होंने ऐसा क्र दिखाया जो बड़ी से बड़ी कम्पनी भी न कर सकी।  आइये जानते हैं इनके इस अनोखे काम के बारे में। 
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HR Breaking News, New Delhi, कचरे से खाद या कचरे से बिजली बनने के बारे में तो हम सब जानते हैं, लेकिन क्या आपने सोचा है कि हम जो कपड़े पहनते हैं वो भी कचरे से बनाए जा सकते हैं.कचरा भी घर से निकला वेस्ट नहीं बल्कि मुर्गे-मुर्गियों के पंख का वो कूड़ा, जिसे कोई छूना तक नहीं चाहता लेकिन उससे तैयार हो रहा है बेहद ही मुलायम फैब्रिक. 


जी हां, ये कर दिखाया है कि जयपुर के दंपति मुदिता और राधेश ने. कॉलेज में आया एक आइडिया इस जोड़े ने अपनी मेहनत और जुनून से एक कंपनी में तब्दील कर दिया और आज इस कंपनी का टर्नओवर करोड़ों में है 


मुदिता एंड राधेश प्राइवेट लिमिटेड की डायरेक्टर मुदिता ने बताया कि वो जब राधेश के साथ भारतीय शिल्प और डिजाइन संस्थान, जयपुर से एमए कर रही थीं तो उन्हें कचरे से नया सामान बनाने का प्रोजेक्ट दिया गया. प्रोजेक्ट के बारे में सोचते हुए एक दिन राधेश पड़ोस की कसाई की दुकान पर खड़े थे वहां उन्होंने मुर्गे के पंखों को अपने हाथ से छुआ. उन्होंने उसी समय कसाई से बात की और इस कचरे के बारे में पूछा जो कि हर रोज भारी मात्रा में दुकान से  निकाला जा रहा था

दिमाग में यही बात लिए, राधेश और मुदिता ने लंबी रिसर्च के बाद इसे ही अपना प्रोजेक्ट बना लिया जो बाद में इनके जीवन का लक्ष्य भी बन गया राधेश बताते हैं कि महज 16 हजार रुपये से उन्होंने ये काम शुरू किया था, जिसने समय के साथ बड़ा रूप ले लिया है. पिछले ढाई साल में कंपनी ने करीब 7 करोड़ का बिजनेस किया और वर्तमान में कंपनी का सलाना टर्नओवर 2.5 करोड़ का है.  

परिवार ने बताया ‘गंदा काम’, साथ देने से किया मना

भारत में चाहे कोई शाकाहारी हो या मांसाहारी, मुर्गे के अवशेष को छूना तो दूर, देखना तक नहीं चाहता.ऐसे में जब राधेश ने अपने परिवार से जो कि खुद पूरी तरह से शाकाहारी है, इस प्रोजेक्ट के बारे में बात की तो परिवार ने साफ मना कर दिया.

 उनका कहना था कि ये गंदा काम है, ऐसी चीजें वो कैसे छू सकते हैं जो अशुद्ध है. काम जब आगे बढ़ा तो भी परिवार ने राधेश का साथ नहीं राधेश बताते हैं कि आर्थिक तो दूर परिवार की तरफ से उन्हें भावनात्मक सपोर्ट भी नहीं मिला.

कॉलेज में प्रोजेक्ट पर काम करते हुए उन्होंने ग्रेजुएशन खत्म किया और उसके बाद पोस्ट ग्रेजुएशन भी किया. राधेश और मुदिता को करीब 8 साल का वक्त लगा अपना  खुद का फैब्रिक बनाने में. 2010 से शुरू हुई ये पहल 2018 में आकर पूरी हुई

. राधेश बताते हैं कि इसके लिए काफी मेहनत और पढ़ाई भी करनी पड़ी. चूंकि पहले ऐसा कोई फैब्रिक किसी ने नहीं बनाया था इसलिए इसके बारे में ज्यादा जानकारी, किताबों और इंटरनेट पर भी नहीं थी. बहुत रिसर्च के बाद उन्होंने मुर्गे के पंखों को साफ करने की विधि ढूंढी  


रास्ते में आईं कई चुनौतियां 


राधेश और मुदिता को चुनौतियों का सामना कॉलेज के समय से ही करना पड़ा. उनके ज्यादातर टीचर और प्रोफेसर उनके काम से खुश नहीं थे. मुर्गे के अवशेषों पर काम  करने के कारण वो इसे गंदा काम बताते और उनकी मदद करने से मना करते. कई टीचरों ने उन्हें फेल तक कर दिया.कॉलेज खत्म होने के बाद की सबसे बड़ी चुनौती थी अपनी थ्योरी को प्रैक्टिकल रूप देना. 


राधेश बताते हैं कि फंड्स से लेकर, सफाई प्लांट सेट करना, बुनकरों को ढूंढना, उन्हें काम के लिए राजी करना, उन्हें काम सिखाना, ट्रेनिंग देना और अंतिम प्रोडक्ट को मार्केट तक लाना, ये सब चुनौतियों को झेलते हुए उन्होंने अपनी कंपनी को खड़ा किया है. हालांकि राधेश और मुदिता बताते हैं कि सिर्फ चुनौती ही नही  कई ऐसे लोग और परिस्थितियां भी आईं जो उनके पक्ष में भी रहीं.  


इस बारे में राधेश बताते हैं कि जब एक बार उन्होंने मुर्गे के पंखों को साफ करने की पूरी तैयारी कर ली तो उसके बाद सबसे बड़ा सवाल था बुनकर कैसे मिलेंगे जो लोग पहले से टेक्सटाइल के बिजनेस में थे, उनसे ही पूछते पूछते ये लोग जयपुर से सटे असनावर पहुंचे और बुनकरों से मिले. उन्हें मनाने में ज्यादा समय नहीं लगा. थोड़ी ट्रेनिंग के बाद बुनकरों ने आसानी से काम सीख लिया और काम शुरू भी किया.  राधेश बताते हैं कि जयपुर के ये बुनकर आदिवासी समुदाय के हैं और इनके गांव तक आज भी पक्की सड़क तक नहीं जाती. 


मुदिता बताती हैं कि कोरोना काल में भले ही मार्केटिंग बंद थी लेकिन उनके बुनकर उस समय भी काम करते थे और पूरी सैलरी भी लेते थे. वो बताती हैं कि उनकी गाड़ी सभी के घरों तक जाती थी, कच्चा माल पहुंचाती थी और काम खत्म होने के बाद कपड़ा भी लेकर आती थी. इस तरह से कोरोना काल का ज्यादा असर इस आदिवासी समुदाय पर नहीं पड़ा. 


वर्तमान में करीब 1200 बुनकर मुर्गे के पंखों से बेहतरीन कपड़ा बनाने का काम करते हैं. राधेश और मुदिता बताते हैं कि हर बुनकर महीने में 8000 से 12000 रुपये कमाता है. आज जहां ज्यादातर कंपनियां मशीनों पर शिफ्ट हो गई हैं और बुनकरों के लिए रोजगार खत्म हो रहा है, ऐसे में मुदिता और राधेश का लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा बुनकरों को अपने साथ जोड़ना और हाथ से काम करने वालों को समाज में उनकी जगह दिलाना है. 

राधेश बताते हैं कि मुर्गे के पंख से बना ये कपड़ा दुनिया का 6वां प्राकृतिक फाइबर है और पश्मीना से भी मुलायम है. इस कपड़े ने रिंग टेस्ट भी पास किया है, यानि ये इतना सॉफ्ट है कि एक अंगूठी में से पूरा गुजर जाता है. कॉटन या ऊन की तरह इसे तैयार करने में साल भर नहीं लगता बल्कि ये 7 दिन के अंदर बनकर तैयार हो जाता है. लेकिन एक बात जो इसे सबसे खास बनाती है वो है इसकी कीमत. पश्मीना से भी मुलायम ये कपड़ा पश्मीना से कई गुना सस्ता बिकता है. 


मुदिता बताती हैं कि भारत में इसके ज्यादा ग्राहक नहीं हैं क्योंकि लोग मुर्गे के पंख से बने शाल का इस्तेमाल करने से कतराते हैं लेकिन बाहर के देशों में इसकी काफी डिमांड है. इनके ज्यादातर प्रोडक्ट्स विदेशों के लिए ही बनते हैं. दिल्ली हाट में भी हर साल गोल्डन फैथेर्स के स्टॉल लगते हैं. धीरे-धीरे लोगों में इसकी पहचान बनती जा रही है. 


सरकार से लाइसेंस की उम्मीद

राधेश बताते हैं कि वैसे तो सरकार की तरफ से उन्हें कई बार आश्वासन और वादे दिए जा चुके हैं लेकिन अब उन्हें सरकार से आर्थिक मदद की कोई दरकार नहीं हैं. अपने काम को आगे बढ़ाने के लिए और रोजगार के अन्य अवसर बनाने के लिए राधेश सरकार से सिर्फ लाइसेंस चाहते हैं ताकि देश के अलग अलग जगहों से मुर्गे के अवशेष सड़ने से पहले सीधे उनके पास पहुंचें.

इससे प्रदूषण भी कम होगा और उनके पास रॉ मटेरियल आसानी से और जल्दी पहुंच सकेगा. वो शहरों में कचरे की गाड़ी या डिब्बों की तरह कंपनी की गाड़ी लगाना चाहते हैं जिसमें पूरे शहर के मुर्गे के पंख इकट्ठा हों और सीधे साफ होने के लिए प्लांट तक पहुंचें. लाइसेंस मिलने से जो काम अभी सिर्फ जयपुर में होता है, वो कई और जगहों पर शुरू हो सकता है और आदिवासी और गरीबों के लिए ये काफी फायदेमंद हो सकता है.