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Success Story - नीट परीक्षा में 620 अंक हासिल कर बेटे ने किया अपने भिखारी बाप का सपना पूरा

मजबूत इरादे और सफलता पाने की जिद के आगे सबकुछ संभव है। ऐसी ही एक जिद पाली छात्र अरविन्द ने। जिन्होंने नीट परीक्षा में  620 अंक हासिल कर गलियों में साइकिल रिक्शा पर कबाड़ लादे फिरने वाले अपने भिखारी पिता का सपना पूरा किया है। आइए जानते है इनकी कहानी। 
 
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नीट परीक्षा में 620 अंक हासिल कर बेटे ने किया अपने भिखारी बाप का सपना पूरा

HR Breaking News, Digital Desk- मजबूत इरादे और सफलता पाने की जिद के आगे सबकुछ संभव है। ऐसी ही एक जिद पाली छात्र अरविन्द ने। परिवार को गांव में सम्मान दिलाने, पिता की शर्म को गर्व में बदलने का इरादा लिए ये छात्र दो साल पहले राजस्थान प्रदेश की एजुकेशन कोचिंग सिटी कोटा आया, यहां मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी की और अब मेडिकल कॉलेज में दाखिले की तैयारी है।

डॉक्टर बनकर वो अपने माता-पिता का गौरव बनना चाहता है। अरविन्द ने नीट-2020 में 620 अंक हासिल किए, आल इंडिया 11603 और ओबीसी कैटेगिरी रैंक 4392 हासिल की है।


अरविन्द कुमार मूलतः उत्तरप्रदेश में कुशीनगर के बरडी गांव का निवासी है। अरविन्द के पिता भिखारी कुमार कबाड़ी का काम करते हैं। वे रिक्शे पर गली-गली घूमकर कबाड़ खरीदते हैं और इसे बेचकर परिवार की आजीविका चलाते हैं। गांव में काम नहीं था, पारिवारिक परिस्थितियां विपरीत थी, ऐसे में पांचवी तक पढ़े-लिखे पिता भिखारी ने गांव से भी बहुत दूर जमशेदपुर टाटा नगर में जाकर यह काम किया,

मां ललिता देवी निरक्षर है और घर का काम करती है। उनकी इच्छा थी कि अरविन्द डॉक्टर बने। इसके लिए उन्होने खुद संघर्ष किया और बेटे को मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट की तैयारी करने कोटा भेजा। एक कोचिंग संस्थान में एडमिशन दिलवाया, पहले प्रयास में रैंक अच्छी नहीं आई तो फिर मेहनत की। दूसरे प्रयास में सफलता हासिल की।

दसवीं में 48 और 12वीं में 60 प्रतिशत प्राप्तांक-


अरविन्द के इरादों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसने एक सामान्य छात्र रहते हुए यह उपलब्धि हासिल की। वो गोरखपुर के सरकारी स्कूल में पढ़ा, रोजाना साइकिल से 8 किलोमीटर आता-जाता था। 10वीं कक्षा 48% एवं 12वीं कक्षा 60 % अंक प्राप्त किए। इतने कम अंकों के बाद भी डॉक्टर बनने का सपना देखा, खुद को तैयार किया। अरविन्द ने बताया कि कोचिंग क्लास के टीचर्स का मार्गदर्शन टर्निंग प्वाइंट रहा।

कोटा ने बदली किस्मत, नहीं होता भेदभाव-


अरविन्द ने कहा कि मैं अपनी सफलता का श्रेय पूरी तरह से कोटा को देना चाहता हूं। यदि मैं कोटा नहीं आता तो अपने-आपको इतना नहीं निखार पाता। मैं एक सामान्य स्टूडेंट था, जिसने 12वीं में मात्र 60% अंक प्राप्त किए। दसवीं में भी सैकंड डिवीजन था। कोटा में माहौल मिला तो मैं निखरता चला गया।यहा पढ़ाई में किसी तरह का भेदभाव नहीं होता है। हर स्टूडेंट को हर सुविधा दी जाती है और उसकी प्रतिभा के साथ न्याय किया जाता है।


गांव का पहला डॉक्टर होगा अरविन्द-


अरविन्द गांव का पहला डॉक्टर होगा। उसने बताया कि छोटा भाई अमित कुमार शिक्षक भर्ती परीक्षा की तैयारी कर रहा है। एमबीबीएस करने के बाद आर्थोपेडिक सर्जन बनना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि परिवार को सम्मान मिले, पिता को पहले भिखारी कबाड़ी कहा जाता था अब उन्हें डॉक्टर के पिता के रूप में जाना जाए।

जानता नहीं था नीट क्या है-


अरविन्द ने बताया कि पापा कबाड़ी हैं, कई बार गांव के लोगों ने पापा की निरक्षरता का फायदा उठाकर उन्हें ठगने की कोशिश भी की। ये सब बातें बहुत आहत करती थी। मेरा खुद से ये संकल्प है कि डॉक्टर बनकर गांव में माता-पिता को सम्मान दिलाऊंगा। इसके बाद शिक्षकों से पूछा कि डॉक्टर बनने के लिए क्या करना होगा, कौनसी परीक्षा देनी होगी, कैसे तैयारी करते हैं।

चर्चा करने के बाद मैंने कोटा जाने का निर्णय लिया। परिवार के लिए ये मुश्किल था लेकिन पापा ने कहा कि ‘मैं हूं, तू सिर्फ पढ़ाई कर’। पापा की इच्छा थी कि मैं डॉक्टर बनूं लेकिन उन्हें आज भी ये नहीं पता कि नीट एग्जाम होता क्या है।

कोचिंग क्लास की बदौलत आज मेरा सपना साकार हुआ-


अरविन्द ने बताया कि कोटा में आकर कोचिंग क्लास में प्रवेश लिया, यहां अपनी परिस्थिति बताई मेरी आर्थिक हालत को देखते हुए फीस में 75 प्रतिशत की छूट दी। किराए से कमरा लेकर रहता था। कम अंक होने के बावजूद टीचर्स ने मुझे कमजोर नहीं समझा। मुझे हर समय मोटिवेट किया, अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए सहयोग दिया।

गांव-गांव जाते हैं कबाड़ लेने-


अरविन्द ने बताया कि पिता गांव से करीब 900 किलोमीटर दूर जमशेदनगर में रहकर कबाड़ का काम करते हैं। जमशेदनगर में लोहे का काफी व्यापार होता है।

पापा गांव-गांव जाकर कबाड़ इकट्ठा करते हैं और बड़े व्यापारी को बेचते हैं। इससे रोजाना कभी 300 तो कभी 400 रुपए तक कमा लेते हैं। कभी-कभी ऐसा दिन भी आता है कि पापा खाली हाथ लौटते हैं। इसी से घर और मेरी पढ़ाई का खर्चा जैसे-तैसे निकलता था।