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Alcohol News : 750 ML की क्यों होती है शराब की बोतल, 90 प्रतिशत लोग नहीं जानते इसका कारण

अक्सर अपने शराब की दुकान पर ये नोटिस किया होगा की शराब की कोई भी ब्रांड की बोतल हो वो 1 लीटर  में नहीं मिलती वो 750 ML  की मिलती है, पर ऐसा क्यों होता है, इसके पीछे भी बहुत तगड़ा गणित लगाया जाता है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं | 

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750 ML की क्यों होती है शराब की बोतल, 90 प्रतिशत लोग नहीं जानते इसका कारण 

HR Breaking News, New Delhi : शराब के शौकीन समाज के हर तबके में हैं. शायद तभी, सभी की जरूरतों का ध्यान रखते हुए यह अलग-अलग साइज और कीमतों में उपलब्ध है. उत्तर भारत में शराब की अलग-अलग मात्रा की बोतलों के लिए पूरी शब्दावली है. पूरी बोतल या खम्भा, हाफ बोतल यानी अद्धा, क्वार्टर यानी पव्वा और मिनिएचर यानी बच्चा. ऐसे में सवाल उठता है कि पूरी बोतल के लिए 750 एमएल और बाकियों के लिए अलग-अलग मात्रा किसने और कैसे तय किए. वैसे तो बाजार में कुछ बोतलें 1 लीटर या उससे ज्यादा मात्रा में भी उपलब्ध होती हैं, लेकिन भारत में शराब की अधिकांश बोतलें 750 एमएल की ही होती हैं. आदर्श तौर पर इसे ही 'खम्भा' का दर्जा हासिल है. शराब की फुल बॉटल का साइज 750 एमएल ही क्यों हो, इसकी पूरी की पूरी कहानी है. आइए, जानते हैं. 

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750 एमएल की यह है पूरी कहानी 
कॉकटेल्स इंडिया यूट्यूटब चैनल के संस्थापक संजय घोष के मुताबिक, एक थ्योरी यह है कि शुरुआत में शराब को बैरल्स में रखते थे. 18वीं शताब्दी आते-आते सहमति बन गई कि शराब को रखने के लिए शीशे के बॉटल से बेहतर कुछ नहीं. उन दिनों बॉटल्स बनाने के लिए 'ग्लास ब्लोइंग' तकनीक का इस्तेमाल होता था. इस तकनीक में, एक खोखले मेटल पाइप के एक सिरे को 2000 डिग्री से ऊपर उबलते शीशे में डाला जाता है. फिर जब गर्म शीशा पाइप के चारों ओर लिपट जाता है तो उसे एक स्टील की प्लेट पर घुमाकर शेप दिया जाता है. फिर खोखले पाइप से फूंककर शीशे में हवा भरी जाती है और बोतल का साइज बढ़ता चला जाता थी. एक खास वक्त में पूरी सांस में बोतल 650 से अधिकतम 750 एमएल साइज तक ही फूलती थी. बाद में 750 एमएल को ही आदर्श साइज मान लिया गया. कुछ कंपनियां आज भी इस तकनीक से बोतलें तैयार करती हैं. ग्लास ब्लोइंग तकनीक क्या है, इसे समझने के लिए इस वीडियो को देखा जा सकता है.

आधुनिक वक्त की बात करें तो घोष के मुताबिक, 1975 में यूरोप में शराब निर्माताओं पर कानूनी बाध्यता डाली गई कि वे एक खास मात्रा में ही शराब को एक विशेष कंटेनर में पैक करें. कहा जाता है कि शराब बेचने वाले और खरीदने वाले, दोनों ही 750 एमएल मात्रा को स्टैंडर्ड मानने पर राजी हुए. वहीं, शराब की बोतल 750 एमएल रखने की एक वजह सीधा साधा गणित भी हो सकता है. शराब के गैलन या पेग का हिसाब रखने के लिए 750 एमएल एक आदर्श मात्रा है. वहीं, गुजरते वक्त के साथ क्वार्टर यानी 180 एमएल और हाफ यानी 375 एमएल की मात्रा स्वीकार्य हो गई. दरअसल, 375 ml, 180 ml, 90 ml से लेकर 50 ML तक साइज की इतनी वैराइटी हमारे देश में ही मिलेंगी. ये छोटी बोतलें लोगों की जेब को ध्यान में रखकर तैयार की गईं, यानी जिसके पास कम पैसे हों, वह भी उसे खरीद सके. वहीं, अगर कोई नए ब्रांड के स्वाद और फ्लेवर को लेकर आश्वस्त नहीं, तो वह कम मात्रा में भी उसे खरीद कर जांच सकता है. 

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मिनिएचर या 'बच्चा' की जरूरत क्यों पड़ी? 
शराब की मिनिएचर बोतलें खासी फेमस हैं. आजकल अंतरराष्ट्रीय हवाई यात्राओं के दौरान इन्हें प्लेन में सर्व किया जाता है. फाइव स्टार होटलों के कमरों के मिनी बार में भी ये उपलब्ध होती हैं. आजकल महंगी शराब की मिनिएचर बोतलें भी गिफ्ट की जाती हैं. आखिर इन बेहद ग्लैमरस छोटी शराब की बोतलों का इतिहास क्या है? घोष के मुताबिक, 1889 में जॉन पावर एंड संस आयरिश व्हिस्की कंपनी ने इसे पहली बार लॉन्च किया. कहते हैं कि शराब के व्यापार से जुड़े पावर परिवार ने अपने तांगेवाले को एक बार फ्लास्क से शराब के छोटे घूंट पीते देखा. वहीं से पावर फैमिली को ऐसी बोतलें बेचने का पहली बार विचार आया. दूसरी वजह यह भी थी आयरिश व्हिस्की आम तौर पर महंगी होती थीं. ऐसे में किसी को उसका स्वाद चखाने के लिए मजबूरी में पूरी बोतल खोलनी पड़ती थी.