Naga Sadhu : खून से लिखा गया है नागा साधुओं का इतिहास, पढ़ें इनके जीवन से जुड़ी सच्ची घटना

Naga Sadhu : वैसे तो दुनिया में बहुत से साधु, अघौरी होते हैं लेकिन क्या आपने कभी नागा साधुंओं के बारे में सुना है। नागा साधुओं का जीवन बहुत ही रहस्यमयी होता है। आइए जानते हैं इनके जीवन से जुड़ी कुछ घटनाओं के बारे में।

 

HR BREAKING NEWS (ब्यूरो)। अयोध्या के हनुमानगढ़ी में हर वक्त कम से कम पांच सौ नागा साधु निवास करते हैं। इस डेरे के बनने की कहानी बहुत दिलचस्प है। निर्वाणी आणि अखाड़ा के महासचिव महंत गौरीशंकर दास बताते हैं कि अयोध्या और आसपास के इलाके में इमली के बहुत से पेड़ हैं। जिस जगह हनुमानगढ़ी किला आज की तारीख में है, ठीक उसी जगह पहले एक इमली का पेड़ हुआ करता था। उसके नीचे बाबा अभयरामदास, वहीं से निकली हनुमानजी की मूर्ति की पूजा-अर्चना किया करते थे। उस समय अयोध्या नवाब शुज़ाउद्दौला के राज का हिस्सा था।

नवाब को कुष्ठ रोग हो गया तो वह बाबा अभयरामदास के पास पहुंचे। बाबा के आशीर्वाद से नवाब ठीक हो गए। इसके बाद नवाब ने बाबा से कहा कि आप जो कहेंगे, हम वो करेंगे। बाबा बोले, हनुमान जी के लिए एक मंदिर बनवा दीजिए और शैव संन्यासी आक्रमण न कर पाएं, इसका भी इंतज़ाम देख लीजिए। इसके बाद शुज़ाउद्दौला ने 52 एकड़ में हनुमानगढ़ी किला बनवाया। आप हुनमानगढ़ी की बनावट देखेंगे तो पाएंगे कि यह बिलकुल किले की तरह बनी हुई है।

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लेकिन अवध के इतिहास के जानकार और पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह कहते हैं कि कुष्ठ रोग की बात सही नहीं है। नवाब साहब कहीं घायल पड़े थे, जहां उन्हें अभयरामदास मिले और उन्हें अपने उसी इमली के पेड़ के नीचे बने डेरे पर ले गए, जिसकी एक खोह में हनुमान जी का मंदिर था। उन्होंने नवाब का इलाज किया, जिसके बाद हनुमानगढ़ी बनाई गई। हाल-फिलहाल तक हनुमानगढ़ी से सीधा यानी साधु संतों को दिए जाने वाले राशन का एक हिस्सा किसी मुस्लिम संत-फकीर को मिलता रहा है, क्योंकि उसी जगह पर एक फकीर का भी डेरा था। उन्हें हटाने की शर्त यही रखी गई कि हनुमानगढ़ी को मिलने वाले राशन का एक हिस्सा रोज़ एक फकीर को भी मिलेगा।

महंत गौरीशंकर दास बताते हैं कि इस किले से नागा साधु भी अंग्रेज़ों के खिलाफ युद्ध में उतरे थे। हनुमानगढ़ी का संविधान 1937 का बना हुआ है। उस वक्त ही इसमें लिखा गया था कि बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, चिलम या किसी भी तरह का नशा पूरी तरह वर्जित है। यहां के संविधान में यह भी लिखा है कि कोई भी साधु, नागा, नागा अतीत, महंत, गद्दीनशीं गैर-मज़हब कार्य नहीं कर सकता। अगर वह ऐसा करता है तो पंचों को अधिकार होगा कि उसे पद और अखाड़े से हटा दें।

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आज भी हनुमानगढ़ी में स्थित गर्भगृह की ओर आते हैं तो उसी ज़माने का एक पत्थर लगा है। उस पर लिखा है कि यहां हिंदुओं के अलावा दूसरे धर्म के व्यक्ति का प्रवेश वर्जित है। महंत गौरीशंकर दास बताते हैं कि नागा साधु प्रवचन नहीं करते। हम तो अखाड़े के लोग हैं। अखाड़े के लोगों का काम है अधर्मियों से लड़ना और अपनी धार्मिक परंपराओं और अनुष्ठानों का बारह महीने पालन करना। हर रोज़ यहां मौजूद सभी नागाओं की हाज़िरी ली जाती है। नागाओं के मुख्तार या कोठारी का काम है कि वे रोज इस हाज़िरी को बाकायदा रजिस्टर में नोट करें। जो गैरहाज़िर होता है, उसके लिए कोई न कोई सज़ा मुकर्रर की जाती है।


संन्यासियों यानी शैवों में नागा दूसरी तरह से बनते हैं, वैष्णवों में दूसरी तरह से। संन्यासियों में जो नागा बनते हैं, वे शाही स्नान के लिए नग्न रूप में जाते हैं। बैरागी यानी वैष्णव नागा इसके विरोधी हैं। वे गंगा को अपनी मां मानते हैं। इसलिए वे गंगा में नग्न होकर स्नान करने को उचित नहीं मानते।

वैष्णव नागाओं के पास हथियार भी होते थे, मगर प्राचीन समय में सवारी का साधन नहीं था। हाथी, घोड़ा या फिर ऊंट की सवारी से चलते थे ये। इसे नागाओं की भाषा में जमात कहा जाता है, लेकिन यह जमात बनी कैसे? इस बारे में नागा महंत गौरीशंकर दास एक कथा सुनाते हैं। यह वह समय था, जब शैव संप्रदाय का अत्याचार वैष्णव संप्रदाय पर बढ़ता ही जा रहा था।

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अयोध्या और वृंदावन बैरागियों का गढ़ कहा जाता है। महंत गौरीशंकर दास बताते हैं कि शैव संप्रदाय में लच्छोगिरी और भैरवगिरी नाम के दो संन्यासी हुआ करते थे। वे पांच वैष्णवों की रोज़ हत्या करते थे, तब जाकर जल पीते थे। जब वैष्णव नहीं मिलते थे तो आटे का वैष्णव बनाकर उसे काटते थे। उसके बाद ही जल ग्रहण करते थे। उस समय जब वैष्णव संप्रदाय के लोग कुंभ में जाते थे, तो उन्हें वहां भी मारा-पीटा जाता था और अपमानित करके भगा दिया जाता था। उन्हें कुंभ में घुसने नहीं दिया जाता था।

उसी समय जयपुर राजघराने से बालानंद जी ने वैष्णव धर्म स्वीकार किया और बालानंदाचार्य हुए। बालानंदाचार्य ने 18 वैष्णव अखाड़ों का निर्माण किया। जैसे - निर्वाणी अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा। इसकी बैठक यानी केंद्र वृंदावन में बनाया गया और वहां देश भर के सभी वैष्णव संप्रदाय के आश्रमों से अखाड़े में एक शिष्य देना अनिवार्य कर दिया। जब कोई साधु बनने के लिए जाता तो दीक्षा देकर उसे बारह साल के लिए देशकाल के भ्रमण के लिए भेजा जाता था। जब बारह साल में वह पूरी तरह से निपुण हो जाता और वापस अपने गुरु के पास आता, तब उसे अखाड़े में भेजा जाता। वहां उन्हें साधक शिष्य बनाया जाता। भगवान शालिग्राम, तुलसीदल और गंगाजल हाथ में लेकर वह अखाड़े के किसी संत-महात्मा को अपना गुरु मानने की कसम खाता।

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आजकल तो मंत्र देने की परंपरा है, पहले नागा की उपाधि दी जाती, फिर युद्ध कला में प्रवीण किया जाता। महंत गौरीशंकर दास यह भी बताते हैं कि नागा होने का अर्थ नग्न होना नहीं है। नागा का काम है धर्म की स्थापना करना। उसका भोजन सात्विक होना चाहिए, सात्विक विचारधारा होनी चाहिए। बालानंदाचार्य जी का उद्देश्य धर्म की स्थापना करना था। उनकी बनाई नागा सेना संन्यासियों के अत्याचार के खिलाफ लड़ती या फिर जो वैष्णव संप्रदाय के आश्रम रास्ते से भटक गए हैं, उन्हें समझा बुझाकर रास्ते पर लाने का काम करती। यह सेना लाठी, बल्लम, तलवार, फरसा आदि से लैस रहती। उसी दौरान जब हरिद्वार का कुंभ नजदीक आया तो देश भर के वैष्णवों का आह्वान किया गया। सब लोग इकट्ठा हुए और साजो-सामान के साथ हथियारबंद होकर हरिद्वार पहुंचे। वहां हमारे पूर्वजों का शैव संन्यासियों से बहुत बड़ा युद्ध हुआ। गंगा खून से लाल हो गई। उस युद्ध के बाद ही हमें वहां स्नान करने की जगह मिली।

महंत गौरीशंकर दास के मुताबिक, आज भी हरिद्वार में उस युद्ध में मारे गए नागाओं की समाधियां हैं। गुजरात में धोलका, धंधुका और वीरम गांव मेहसाणा जिले में भी हैं समाधियां। वहां वैष्णव और शैव संन्यासियों के बीच इतने युद्ध हुए कि शैव संन्यासी आज भी वहां का पानी नहीं पीते। देश भर में जिन चार जगहों पर कुंभ लगते हैं, उन सभी जगहों पर वैष्णवों का शैव संन्यासियों से भयंकर युद्ध हुआ। वैष्णवों ने कुंभ स्नान का हक इन युद्धों में जीतकर हासिल किया।

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नागाओं पर 'ऐसेटिक गेम्स' किताब लिखने वाले धीरेंद्र झा का कहना है कि हरिद्वार कुंभ में लड़ाई होने वाली बात सही है। वहां दशनामी और बैरागियों में बहुत लड़ाई हुई थी। दशनामी अखाड़ा सिखों का है। बाकी जगहों के बहुत सारे ऐसे युद्ध अधिकतर सुनी-सुनाई कथाओं से लिए गए हैं। उन्होंने बताया कि यह सच है कि संन्यासियों और बैरागियों में कुंभ के बहुत पहले से ही भिड़ंत होती रही है।

वैष्णव संप्रदाय से संबंधित जो भी फैसले लिए जाते हैं, वह या तो वृंदावन या फिर कुंभ में लिए जाते हैं। इनका मूल अयोध्या और वृंदावन है। इनके अखाड़े की बैठकें यानी कि केंद्र हर तीर्थ स्थान में है। जैसे, नासिक, हरिद्वार, चित्रकूट, उज्जैन, वृंदावन। यहां से वे देश भर के वैष्णव आश्रमों का संचालन करते। वैष्णव नागाओं के यहां मल्लयुद्ध की पुरानी परंपरा है। आज शैव संन्यासियों और वैष्णव संतों में पहले जैसी दुश्मनी नहीं रही। अखाड़ा परिषद बना और सब साथ उठने-बैठने लगे, लेकिन एक वक्त था जब वैष्णव साधु शैव संन्यासियों के हाथ का छुआ पानी तक नहीं पीते थे।