Success Story- छोटे से गांव से निकला बेटा, आज बन गया 'द लीजेंड ऑफ एनाटोमी',  भावुक कर देगी इनकी कहानी
 

अगर आपके मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा होता है तो आपकी राहों के बीच कोई भी रोड़ा नही बन सकता है। आज हम आपको  हमारी कहानी में बताएंगे कि कैसे एक छोटे से गांव से निकलकर एक बेटा आज 'द लीजेंड ऑफ एनाटोमी' बना। आइए जानते है इनकी भावुक कर देनी वाली कहानी।  
 
 

HR Breaking News, Digital Desk- मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा और दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो कोई भी लक्ष्य नामुमकिन नहीं होता। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है छतरपुर जिले के एक छोटे से गांव के किसान परिवार के बेटे ने, जिन्होंने पूरे चिकित्सा जगत में भारत का परचम लहराया है। उनकी उपलब्धियों के कारण उन्हें 'द लीजेंड ऑफ एनाटॉमी' और 'एनाटॉमी के चाणक्य' के नाम से जाना जाता है।

विज्ञान और तकनीकी के सर्वोच्च अवार्ड कैलाशनाथ काटजू से राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह द्वारा सम्मानित एनाटॉमी के चाणक्य डॉ बीडी चौरसिया। जिनका जन्म छतरपुर जिले के बारीगढ़ कस्बे में 1 अक्टूबर सन 1937 को हुआ था। उनका पूरा नाम भगवानदीन चौरसिया है।

डॉक्टर चौरसिया की प्राथमिक शिक्षा बारीगढ़ में हुई है और उन्होंने 1952 में महोबा के डीएवी से हाई स्कूल पास कर, 1954 में इलाहबाद के साइंस क्रिश्चियन कॉलेज, इलाहाबाद से इंटरमीडिएट, और इविंग क्रिश्चियन कॉलेज, इलाहाबाद से ग्रेजुएशन की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने 1960 में एमजीएम मेडिकल कॉलेज इंदौर से एमबीबीएस की परीक्षा पास की और 1965 में इंदौर विश्वविद्यालय से एमएस एनाटॉमी की परीक्षा उन्होंने पास किया।

जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर से 1975 में पीएचडी की उपाधि मिली और सन 1974 में एफएएमएस नेशनल अकैडमी ऑफ मेडिकल द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया।

डॉ चौरसिया ने एनाटॉमी में व्याख्याता के रूप में गांधी मेडिकल कॉलेज भोपाल में और एनाटॉमी में रीडर के रूप में जीआर मेडिकल कॉलेज ग्वालियर में अपनी सेवाएं दी हैं। डॉक्टर बीडी चौरसिया द्वारा रचित एनाटॉमी की किताबों को न सिर्फ भारत में पढ़ाया जाता है, बल्कि विश्व के बहुत से देशों ने भी अपने मेडिकल कॉलेज में इनकी किताबों को अनिवार्य किया है। उनकी लिखी पुस्तकों के कारण भारतीय मेडिकल जगत में विदेशी पुस्तकों की निर्भरता खत्म कर भारत को मेडिकल पुस्तकों में आत्मनिर्भर बनाकर नए युग की शुरुआत की है।


किताबें खरीदने के लिए सक्षम बनाया-

वहीं गरीब मेडिकल छात्रों को एनाटॉमी विषय की किताबें वरदान साबित हुई हैं, क्योंकि वे विदेशी मेडिकल जगत की किताबों की तुलना में बहुत ही सस्ती हैं। ऐसे में उन्होंने मेडिकल जगत के सभी गरीब और असक्षम छात्रों को मेडिकल किताबें खरीदने के लिए सक्षम बनाया है। मेडिकल जगत में एनाटॉमी विषय को अपने अध्यापन की विशेष क्षमता से डॉक्टर चौरसिया ने इतना सरल बना दिया है कि न सिर्फ हिंदुस्तान के मेडिकल क्षेत्रों में बल्कि संपूर्ण विश्व में उन्हें "द लीजेंड ऑफ एनाटोमी" के नाम से जाना जाता है।

यह उस समय की बात है जब 70 के दशक में कोई टेक्नोलॉजी नहीं थी और उस समय बिना किसी तकनीकी सहायता के अपने अनुसंधान और स्वरचित डायग्रामों द्वारा मेडिकल एनाटॉमी विषय का ऐसा सचित्र विवरण प्रस्तुत किया जो आज के वर्तमान तकनीकी समय में भी संभव नहीं हो सका है।

छतरपुर जिले के बारीगढ़ में एक किसान परिवार में जन्में इस महान लीजेंड ने भारत को मेडिकल जगत की किताबों का विश्व गुरु बनाने हेतु अपना जीवन समर्पित कर दिया। यहां तक कि उन्होंने शादी भी नहीं की, और भारत मेडिकल बुक्स के संबंध में आत्मनिर्भर बन सका। इस महान शिक्षक ने एनाटॉमी विषय को अपने अनुसंधान से मेडिकल जगत के लिए इतना सरल बना दिया कि आज तक उसका कोई विकल्प नहीं है। उनके इन्हीं कार्यों के चलते उन्हें मरणोपरांत मध्यप्रदेश के सर्वोच्च विज्ञान एवं तकनीकी सम्मान कैलाश नाथ काटजू सम्मान से तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने सम्मानित किया।

अंतिम इच्छा थी कि उन्हें उनके पैतृक गांव बारीगढ़ में उनका अंतिम संस्कार किया जाए-

ग्वालियर लॉ कॉलेज के प्राचार्य के द्वारा 12 अगस्त 2020 को भारत के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर स्वर्गीय डॉक्टर बी डी चौरसिया को भारत रत्न प्रदान करने की मांग की गई है। स्वर्गीय डॉ चौरसिया की मृत्यु 5 मई सन 1985 को हुई थी और उनकी अंतिम इच्छा थी कि उन्हें उनके पैतृक गांव बारीगढ़ में उनका अंतिम संस्कार किया जाए और उनकी इच्छा के अनुरूप उनका अंतिम संस्कार बारीगढ़ में ही किया गया। यहां के बुजुर्ग बताते हैं कि जिस समय डॉक्टर बीडी चौरसिया की मृत्यु हुई थी, उस दिन बारीगढ़ में भयंकर आंधी तूफान आया था। बारीगढ़-गौरिहार मार्ग में एक सुंदर सी बगिया में उनका समाधि स्थल बना है और डॉक्टर चौरसिया की प्रतिमा भी स्थापित की गई है।

इस समाधि स्थल और बगिया की रखवाली करने वाले जग्गू बताते हैं कि डॉ साहब के परिवार के सदस्य ग्वालियर में रहते हैं, वे लोग साल में एक-दो बार ही यहां आते हैं और एक दो दिन रुककर वापस चले जाते हैं। स्थानीय संतोष अहिरवार और अवधेश चौरसिया का कहना है कि उनकी मृत्यु के उपरांत कई वर्ष तक यहां हर माह मेला लगता रहा है और साल में एक बार उनकी स्मृति में नेत्र शिविर भी लगाया जाता था। लेकिन अब धीरे-धीरे सब कुछ बंद हो गया।