Naga Sadhu Vs Aghori : नागा साधु और अघोरी में होता है बहुत अंतर, दोनों को एक समझने की मत कीजिये गलती 

हमारे देश में साधुओं की बहुत किस्मे मिलती है, और हमारे देश में साधुओं को बहुत रिस्पेक्ट दी जाती है।  सबसे ज्यादा प्रचलित किस्मों में से नागा साधु और अघोरी सबसे ज्यादा मशहूर और बाकि साधुओं से अलग होते हैं।  पर कई लोग इन्हे एक ही समझने की गलती कर देते हैं।  आज हम इन दोनों के बीच के अंतर को बताएंगे।  
 

HR Breaking News, New Delhi : प्रयागराज में इस समय संगम के तट पर माघ मेला (Magh Mela) लगा हुआ है। अब 18 फरवरी को महाशिवरात्रि पर स्‍नान की तैयारियां चल रही हैं। ऐसे में श्रद्धालुओं की जबर्दस्‍त भीड़ होगी जो न केवल स्‍नान करने आए होंगे बल्कि संगम तट पर मौजूद साधु-संतों के दर्शन करने की इच्‍छा भी संजोए रहते हैं। संगम पर नागा साधु (Naga Sadhu) आकर्षण का केंद्र होते हैं। माघ मेले के अलावा ये बहुत कम समाज में दिखते हैं। लेकिन कम जानकारी होने की वजह से कुछ लोग नागा साधुओं और अघोरियों (Aghori Sadhu) को एक ही समझ बैठते हैं, जबकि दोनों में कुछ समानता होते हुए मूलभूत अंतर है।

यह सही है कि दोनों सनातन धर्म के अभिन्‍न अंग हैं। दोनों ही भगवान शिव को अपना आराध्‍य मानते हैं। दोनों की वेशभूषा भी काफी समान होती है, दोनों ही उग्र लगते हैं। लेकिन इन शुरुआती समानताओं के बाद दोनों में ढेर सारे अंतर हैं।

आदि गुरु शंकर ने की स्‍थापना
नागा साधुओं की उत्‍पति के पीछे माना जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने 5वीं शताब्‍दी ईसापूर्व में उस समय की अशांत समााजिक स्थिति को देखते हुए साधुओं के एक ऐसे वर्ग का गठन किया जो शस्‍त्र धारण करके धर्म की रक्षा करे और जिसे शास्‍त्रों का ज्ञान भी हो। इस आधार पर साधुओं को अखाड़ों में बांटा गया। नागाओं ने कई युद्धों में हिस्‍सा भी लिया। मसलन, अहमद शाह अब्दाली ने जब मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण किया उस समय साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।

दिगंबर होना है पहचान
वस्‍त्र न पहनने की वजह से ये दिगंबर कहलाते हैं। दिगंबर का शाब्दिक अर्थ है दिशाएं जिसका वस्‍त्र हो। इनकी पहचान, त्रिशूल, तलवार, शंख से है। ये अपने शरीर पर धूनी की राख लपेटे रहते हैं। लेकिन नागा संप्रदाय में दीक्षित होने की प्रक्रिया काफी जटिल है।

अखंड ब्रह्मचर्य, दीक्षा से पहले पिंडदान
एक बार नागा संप्रदाय में शामिल हो गए तो इन्‍हें 12 वर्षों तक अखंड ब्रह्मचर्य, ध्‍यान, साधना, योग और धार्मिक कर्मकांड की शिक्षा लेनी होती है। ये जीवन भर ब्रह्मचर्य का ही पालन करते हैं। दीक्षा से पहले ये अपना पिंड दान करते हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि ये संसार के लिए मर चुके हैं। संन्‍यास इनका दूसरा जीवन है। उनके इसी ज्ञान और समर्पण का सम्‍मान करते हुए शाही स्‍नान पर सबसे पहले गंगा स्‍नान करने का अधिकार नागाओं को ही दिया जाता है।

अघोरी हैं शिव के साधक, शिव स्‍वरूप
वहीं अघोरी अघोरपंथ के साधक हैं। इन्‍हें शिव का स्‍वरूप भी कहा जाता है। ये भी नागा साधुओं की तरह शिव के उपासक होते हैं। लेकिन अघोर दर्शन इन्‍हें अपने आराध्‍य की तरह जीवन बिताने की प्रेरणा देता है। मतलब, अघोरी भगवान शिव की तरह श्‍मशान की नीरवता में रहें। मृत्‍यु इस दुनिया का सबसे बड़ा डर है, अघोरी श्‍मशान में रहते हैं जहां मौत से दिन रात का वास्‍ता होता है। इसीलिए इन्‍हें अघोरी कहा जाता है जिनके लिए कुछ भी घोर (भयानक) नहीं है।

श्‍मशान है इनका वास
अघोरियों के भी गुरु होते हैं जिनसे ये दीक्षा या ज्ञान लेते हैं। लेकिन इनके अखाडे़ या आश्रम नहीं होते। सामान्‍यत: ये अपनी चेतना को ऊपर उठाकर परमचेतना में विलीन करने के लिए वाम मार्गी तंत्र का सहारा लेते हैं इसलिए समाज में जिज्ञासा और भय का कारण बनते हैं। वाम मार्गी तंत्र में पंच मकार का महत्‍व है। पंच मकार यानी मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन। इन पांचों तत्‍वों का अघोर पंथ में बहुत महत्‍व है। लेकिन इसका सेवन यह आनंद के लिए नहीं बल्कि परम तत्‍व से एकाकार होने के लिए करते हैं। नागा साधुओं के विपरीत ब्रह्मचर्य इनकी कोई शर्त नहीं होती। सामान्‍यत: ये श्‍मशान के अलावा बाहर नहीं पाए जाते इसलिए संगम तट पर या कुंभ मेले में ये पहुंचें यह जरूरी नहीं, लेकिन अगर ये गंगा स्‍नान को जाएं तो इस पर रोक भी नहीं। नागा वस्‍त्र नहीं पहनते लेकिन अघोरियों के लिए जरूरी नहीं कि वे वस्‍त्र त्‍याग करें