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Success Story - गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोफेसर ने छोड़ा अपना घर, 600 बच्चों को दी हायर एजुकेशन

आज हम आपको एक ऐसी कहानी बताने जा रहे है जिसमें गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए एक प्रोफेसर ने अपना घर छोड़ तक दिया। जिसके बाद उन्होंने फ्री में 600 बच्चों को हायर एजुकेशन देना शुरू किया। आइए जानते है इनकी पूरी कहानी। 
 
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HR Breaking News, Digital Desk- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के हिस्ट्री डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ राजीव श्रीवास्तव कूड़ा बीनने वाले, गरीब और बुनकरों के बच्चों के लिए किसी मसीहा से कम नहीं है। उनका कहना है, 'मेरा मकसद केवल उपेक्षित बच्चों को मुख्यधारा से जोड़ने का है जिससे वो नशे की लत और अपराध से दूर रहे।'वो कूड़ा बीनने वाले बच्चों को बेहतर शिक्षा दे रहे हैं और अपने पैसे से उनको पढ़ा रहे हैं। बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्होंने अपना घर परिवार भी छोड़ दिया। अब तक करीब 600 बच्चों को शिक्षा दे चुके हैं।

 पिता ने रखी थी शर्त-


1988 में कुछ बच्चों को मुगलसराय प्लेटफॉर्म नंबर दो पर पढ़ाना शुरू किया था। जिसके बाद आसपास के लोगों ने ये देखकर उनके पिता से शिकायत करते हुए कहा कि आपका बेटा कूड़ा बीनने वाले बच्चों के साथ उठता बैठता है। इस मामले को लेकर उनका और परिवार के लोगों का 4 साल तक विवाद चला।

1992 में पिता डॉ राधेश्याम श्रीवास्तव ने शर्त रखते हुए कहा कि कूड़ा बीनने वाले बच्चों के साथ रहोगे या परिवार के साथ तुम दोनों में से एक को चुन लो। और उन्होंने इन बच्चों को पढ़ाने का रास्ता चुना। उसी समय वो वाराणसी आ गए। बीए फाइनल मुगलसराय से कंप्लीट किया जबकि पीजी कॉलेज से एमए पूरा किया।

कई स्ट्रगल देखने के बाद मिली सफलता-


घर छोड़कर वाराणस उनके पास कोई ठिकाना नहीं था।  जिसेक बाद उन्होंने 3 महीनों तक वाराणसी रेलवे स्टेशन को ही अपना घर बना लिया। उन्होंने बताया कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर बुक पढ़कर जीवन में परिवर्तन आया। किताब में स्लोगन था, करो न्योछावर बनो फ़क़ीर माइंड यही से बदला। मुगलसराय स्टेशन पर इण्टर की पढ़ाई के दौरान देखा करता था कि कूड़ा बीनने वाले बच्चों को देखकर लोग दूर हट जाते थे। कचरे से उठाकर बच्चे खाना खाते थे।

स्टेशन पर दर्जनों कूड़ा बीनने वाले बच्चों को फ्री में पढ़ाना शुरू किया और पांच दिन भूखा रहा। एक दिन स्टेशन बाहर बाटी चोखा बेचने वाला शख्स आया बोला तुम मेरी बेटी को पढ़ाओं, खाना दोनों टाइम हम दे देंगे। धीरे-धीरे बाहर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और एक अख़बार में 500 रूपये में नौकरी शुरू कर दी। 

10 दिसंबर 1994 में साइकिल से काशी से उत्तर काशी गंगा यात्रा किया। वापस आकर पार्कों और घर पर ही बच्चों को पढ़ाने लगा। बुनकरों और गरीब के बच्चे भी आने लगे। 1996 में काशी विद्यापीठ में एडहाक पर पढ़ाने का मौका मिला। 1996 में 4000 रुपए की नेहरू स्कॉलरशिप मिली। घर छोड़ने के बाद आठ साल बाद जूता ख़रीदा दो कपडे आठ साल में बदलकर पहनता था कुछ कपड़े भी ख़रीदे।

- 2007 में बीएचयू में जॉब मिल गई। पैसे की तंगी थोड़ी कम होने लगी। ज्यादातर कूड़ा बीनने वाले बच्चे अनाथ होते हैं या परिवार की जिम्मेदारी उनपर ही होती।  

 ऐसे बच्चे हाई स्कूल इण्टर तक पढ़कर प्राइवेट नौकरी, सब्जी बेचना, मैकेनिक बन गए और नशे की लत से दूर हो गए।  25 बच्चे हॉयर एजुकेशन में पढ़े, चार पीएचडी भी किये हैं: मुस्लिम महिला फाउंडेशन की नेशनल सदर नाजनीन अंसारी एमए, अर्चना और पूजा पीएचडी कर चुकी हैं। 2000 में नाजनीन से मुलाकात हुई, गरीब बुनकर परिवार से वो थी। पढ़ना चाहती थी। 2005 में उसको गोद लिया और वो मेरे ही साथ मेरे गुरुकुल में चली आयी। मेरे पास ऐसे बच्चे आने लगे जिनके या तो मां नहीं है या पिता नहीं है। ज्यादातर बच्चे अपना टाइटल भारतवंशी लगाते हैं।

तीन तरह के बच्चों को गोद लेते हैं-


उन्होंने बताया कि बच्चे जो अनाथ हो पढ़ना चाहते हो। गरीब हैं पढ़ना चाहते हैं। तीसरा जिनके मां या पिता नहीं हों। उन्होंने बताया कि 1989 में भारत विशाल संस्थान बनाया। अनाज बैंक 2015 गरीबों को मुफ्त अनाज दिया जाता है। चिल्ड्रेन बैंक 2008, कूड़ा बीनने वाले बच्चे या गरीब बच्चे जो छोटा मोटा काम कर पैसा कमाते उसको अपने ही बैंक में जमा करते बाद में अन्य बैंको में जमा किया जाने लगा।

हनुमान चालीसा फेम नाजनीन ने बताया कट्टरपंथी कभी नहीं चाहते मुस्लिम लड़कियां पढ़ें राजीव सर की ही देन है कि मैं एमए पास हुई और हिन्दू मुस्लिम एकता पर काम कर रही हूं।