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Old Age Property - बुजुर्गाें की बनाई संपत्ति में बहू के हक को लेकर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला

हाल ही में बुजुर्गाें की बनाई संपत्ति में बहू के हक को लेकर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला सामने आ रहा है। जिसके तहत दादी सास के पक्ष में एक फैसला सुनाया कि उसके पोते की पत्नी दादी सास की मर्जी के बिना घर में नहीं रह सकती। 

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Old Age Property - बुजुर्गाें की बनाई संपत्ति में बहू के हक को लेकर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला

HR Breaking News, Digital Desk- हाल ही में दिल्ली की एक अदालत ने दादी सास के पक्ष में एक फैसला सुनाया कि उसके पोते की पत्नी दादी सास की मर्जी के बिना घर में नहीं रह सकती। समाज और खासकर बड़े शहरों में बुजुर्ग अपने ही बच्चों की अति सहने को विवश हैं। ये फैसला 80 वर्ष की एक महिला द्वारा अदालत में लगाई गई याचिका पर आया है। यह बुजुर्ग महिला नहीं चाहती थी कि उसके पोते की पत्नी और उसके परिजन उसके घर में रहें।

अधिक उम्र में प्रतिष्ठा के साथ रहना इन दिनों चुनौती बना हुआ है। अदालत ने कुछ समय पहले ही बेटा और बहू के विरोध में फैसला दिया, जिसमें कहा कि वह माता-पिता की अनुमति के बिना उनके बनाए घर में नहीं रह सकते।

इसके बाद दादी सास के हक में यह फैसला बताता है कि समाज में बदलाव को देखते हुए अदालतें यथार्थ के फैसले ले रही हैं। यह भारतीय परम्परा के एकदम विपरीत है, जो कहती है कि शादी के बाद ससुराल ही बहू का घर रहता है। स्वअर्जित संपत्ति को लेकर कानूनी स्थिति एकदम बदल चुकी है।

घरेलू हिंसा कानून के बाद यह मुद्‌दा और अहम हो गया है। पति के साथ घर खरीदा है तो बतौर सुरक्षा कानून ने महिला को उसमें रहने का अधिकार दिया है। यह अधिकार महिला के गुजारा भत्ते और मानसिक शारीरिक हिंसा से बचाव के अधिकार के अलावा है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में एक फैसला दिया था, इसमें अदालत ने वरिष्ठ नागरिकों को बचाने की पहल करते हुए परित्यक्त बहू द्वारा घर से निकलने के प्रयासों को विफल कर दिया था। इस पर बहू ने विरोध किया। उसका तर्क था कि वह कानूनी रूप से ब्याहता है और इसलिए उसका भी इस संपत्ति पर अधिकार है।

उसने दावा किया कि उक्त संपत्ति पूरे परिवार के पैसे से ली गई है। घरेलू हिंसा कानून का हवाला देते हुए बहू ने कहा कि संपत्ति में उसकी भी हिस्सेदारी है और वह उस घर में रह सकती है। परंतु उसके ससुर ने दिल्ली की अदालत में उसे घर में रखने के लिए आवेदन दिया था। उनका तर्क था कि मेरे द्वारा अर्जित संपत्ति में बहू को रहने का कोई अधिकार नहीं है।

यह कोई पूर्वजों की संपत्ति नहीं है और ही इसे संयुक्त परिवार के पैसे से खरीदा गया है। उन्होंने तर्क दिया कि तो घरेलू हिंसा कानून और ही कोई अन्य कानून यह अनुमति देता है कि बहू ससुराल पक्ष की मर्जी के बिना उस घर में रहे।

शिखर अदालत ने पाया कि बहू को उस संपत्ति में कोई अधिकार नहीं है, जो ससुर द्वारा स्वअर्जित हो। जब तक ससुर की अनुमति हो, तब तक बिल्कुल भी नहीं। इससे यह सिद्ध हो गया कि जब तक किसी महिला के पति का किसी संपत्ति में कोई अधिकार हो, तब तक उक्त महिला का कोई अधिकार नहीं हो सकता। खासतौर पर ससुराल की संपत्ति के मामले में।

दिल्ली हाईकोर्ट ने भी कुछ वक्त पूर्व फैसले में कहा था कि बेटा भी माता-पिता के घर में तभी तक रह सकता है, जब तक कि माता-पिता की अनुमति हो। वह इसमें रहने के लिए कानूनी अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता है। यह उस स्थिति में, जब तक कि पिता ने स्वयं उक्त संपत्ति खरीदी हो। लेकिन यदि पिता के पिता यानी दादा ने संपत्ति खरीदी हो तो स्थिति एकदम अलग हो सकती है। यह भी महत्वपूर्ण है कि माता-पिता की संपत्ति में बेटी का अधिकार समान है। यह हिंदू विरासत कानून में हुए बदलाव के बाद संभव हो सका है।

यह उल्लेखनीय है कि 2005 के पहले भी पैतृक संपत्ति में बेटा और बेटी का अधिकार अलग-अलग हुआ करता था। बेटी शादी होने तक पिता की संपत्ति के अलावा पूर्वजों की संपत्ति में हकदार थी। शादी के बाद उसे पति के परिवार का हिस्सा माना जाता था। संशोधन के पहले हिंदू अविभाजित परिवार में शादी के बाद बेटी का हक नहीं रह जाता था।

संशोधन के बाद बेटी भले ही विवाहित हो या नहीं पिता के एचयूएफ में वह भी हकदार मानी जाती है। यहां तक कि उसे कर्ता भी बनाया जा सकता है, जो उस संपत्ति का प्रमुख माना जाता है। संशोधन के बाद उसे मायके में बेटे के बराबर का ही हिस्सेदार माना जाता है। फिर भी ससुराल में उसके पास यह हक बहुत सीमित स्तर तक ही है।

फैक्ट दिल्ली में दो वर्ष पूर्व अदालत ने एक महिला को घरेलू हिंसा की गलत शिकायत लिखाने पर 1 लाख रुपए का अर्थदंड देने की सजा सुनाई थी। सजा सुनाने वाली जज भी महिला ही थीं।