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Success Story: पति ने कहा था - 'कमाना पड़े तो पता चले!', आज हाथों के हुनर ने दिलाई पहचान, बनी सफल बिजनेस वुमन

Success Story of Poonam Lal: हर सफल व्यक्ति एक लंबे समय संघर्ष, कड़ी मेहनत और लगन के दम पर सक्सेस प्राप्त करता है. हम सभी ऐसे सफल लोगों की हजारों कहानियां हैं जो दूसरों को प्रेरित कर सकती हैं. आज हम आपको एक ऐसी ही कहानी बताने जा रहे है जिसमें एक गृहणी ने  44 साल की उम्र में कुछ करने की ठानी और आज वह एक सफल कारोबारी हैं। 

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HR Breaking News, Digital Desk- आज किसी भी क्षेत्र में महिलाएं किसी भी लिहाज से पुरुषों से पीछे नहीं हैं. आसमान में ऊंची उड़ान हो या मल्टीनेशनल कंपनी में तरक्की की मिसाल, सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने सफलता का परचम लहराया है. ये कहानी प्रेरक होती हैं लेकिन इनसे भी ज्यादा प्रेरणा मिलती है जब एक गृहणी घर की चौखट लांघकर अपना कारोबार खड़ा करती है. पूनम लाल एक ऐसी ही महिला हैं, जिन्होंने घर से बाहर निकलकर अपना बिजनेस खड़ा किया और आज वह एक सक्सेसफुल बिजनेस वुमेन हैं.

 Poonam Recipe नाम से अचार का सक्सेसफुल ब्रांड स्थापित करने वाली पूनम लाल की कहानी उन्हीं की जुबानी...

मैं पूनम लाल, बचपन में पांच साल की उम्र में शुरुआती शिक्षा के लिए गांव से शहर आ गई पिता के पास और वहीं तीन साल मां के बिना रही. वो भी बहुत कष्ट भरे दिन थे. पिता से बहुत डरती थी, उनकी एक घुड़की से कांप जाती थी. कुछ समय बाद मेरे पिता का सेलेक्शन पी सी एस में हो गया और हम सब मां और दादा जी के साथ मथुरा शिफ्ट हो गए.

भाई-बहनों की बनीं दूसरी मां-


कक्षा सात में जब मैं आई तब तक मैं अपने चार छोटे भाई बहनों की दूसरी मां बन गई थी. उनकी पढ़ाई, उनका होमवर्क, उनकी पी टी एम जैसे सभी कुछ मेरी खुद की पढ़ाई के साथ देखना पड़ता था. नतीजा मैं सिर्फ पास भर होती चली गई बिना किसी अच्छे अंक के.


अधूरा रह गया सपना-


बड़ी होने के नाते मुझे एक उदाहरण प्रस्तुत करना था अपने भाई बहनों के लिए इसलिए कक्षा सात से ही सलवार सूट और दुपट्टा ही एकमात्र विकल्प रख दिया गया पहनावे में. मेरे अध्यापक मेरी चित्रकारी के हमेशा कायल रहे. एक सर्टिफिकेट तो स्टेट लेवल का भी मुझे मिला, पर सब व्यर्थ रहा. पापा ने मुझे न तो फाइन आर्ट्स में दाखिला दिलाया और न ही लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ने दिया जहां जाने के मैं सपने बुन रही थी. उनका मानना था कि घूमना हो तो यूनिवर्सिटी जाओ, नहीं तो कि महिला कालेज में जाओ.

कैसे कह देती कि मुझे यूनिवर्सिटी घूमने जाना है! नतीजा मैंने नारी शिक्षा निकेतन से अपना ग्रैजुएशन पूरा किया.

महिला कालेज से मैंने बी एड का एंट्रेंस क्लीयर किया और दो महीने ही हुए थे कि शादी तय हो गई. मां से दबी जुबान में मना भी किया पर सुनता कौन है...सो ब्याह दी गई और मेरा बी एड अधूरा ही रह गया.

बच्चे बने जीने की वजह-


फिर मेरे जीवन में मेरे बच्चे आए जो मेरे जीने की वजह बन गए. खुद को अच्छी पत्नी, अच्छी मां, अच्छी चाची, अच्छी भाभी साबित करने में खुद को इस तरह झोंक दिया कि मेरा खुद का वजूद पूरी तरह से लापता हो गया. मैं मेरे सभी काम को परफेक्शन की हद तक करती थी. फिर भी कोई न कोई कमी निकाल कर मेरे नाकारा होने का बोध करा ही दिया जाता था. मैं बहुत हताश-निराश थी. कभी कभी आत्महत्या जैसे ख्याल भी आते थे. फिर मेरे बच्चों के मासूम चेहरे मुझे इस विचार को झटक देने को विवश कर देते थे.

दोबारा हुआ जन्म-


मेरी सबसे बड़ी बेटी ने मुझे मानसिक संबल दिया और हिम्मत भी दी कि तुम जब तक बर्दाश्त करोगी ये सब और खराब होता जाएगा. अपने लिए बोलना सीखो. और इस तरह जीवन के 44 साल बाद एक बार फिर से पूनम लाल का जन्म हुआ. जहां मैंने 22 साल पिता के अनुरूप जीवन जिया...22 साल पति के अनुसार लेकिन बाकी के जीवन को मैं खुद के लिए भी जीना चाहती थी. वो भी सभी जिम्मेदारियों को निभाते हुए.

कमाना पड़े तो पता चले-


हम पति पत्नी के बीच भी काफी दूरियां आ गई थीं, इसलिए खुद के पैरों पर खड़े होना अब और भी आवश्यक हो गया था. एक बार बहस के दौरान पति बोल दिए थे, "कमाना पड़े तो पता चले!!" ये शब्द मेरे कानों में बार बार गूंजते थे और मुझे भी ये लगने लगा कि सही तो है. आखिर कब तक मैं दूसरों के पैरों पर खड़ी रहूंगी? पहले पिता के फिर पति के और शायद बुढ़ापे में पुत्र के!
थोड़ी सी तो जमीं हो जो मेरी खुद की हो... मुट्ठी भर ही सही...पर मेरा खुद का आसमान हो. मन की हलचल को मैंने फेसबुक पर शब्दों का जामा पहना उकेरना शुरू किया. लोगों को मेरे लेख पसंद आने लगे.

मुझे सिर्फ नाम नहीं आधार चाहिए था-


मेरी सच बोलने और खरी बात कहनी की आदत के चलते लोग मुझे पूनम मिर्ची बुलाने लगे. कभी कोई कविता लिखती तो कभी कोई लेख तो कभी खुद की कहानी थोड़े बदलाव के साथ. मेरे कुछ लेख बहुत लोगों ने मेरी वॉल से उठा कर अपने नाम से चेंप लिए. जिनमें देवदासी का मर्म मेरी कलम से, जिगोलो, किन्नर, वेश्यावृत्ति का सच जैसे हजारों की संख्या में पढ़ी गईं और शेयर की गई.
पर लेखक की कलम पसंद तो सभी को आई पर उस कलम की कीमत नहीं थी. और मुझे सिर्फ नाम नहीं... एक आधार चाहिए था और वो भी मजबूत. मन बन लिया था कि पति के रिटायरमेंट तक मुझे मेरी जमीन तलाश लेनी है. पर कैसे और क्या करके यह एक यक्ष प्रश्न था.

हाथों के हुनर ने दिलाई नई पहचान-


मैंने अपने भाई से बात की, वो बोला आप कुछ भी करो. मुझसे जो हो सकेगा मैं मदद करूंगा. बच्चे तो साथ थे ही, तो सोचा जो काम जिंदगी भर किया क्यों न उसी को आजमाया जाए? यानी अपने हाथों का हुनर आजमाया जाए. पहली बार 30 किलो लाल मिर्च लाई और भाई के घर पर काम करना शुरू किया . मिर्च का अचार बना ही थी कि पहला लॉकडाउन लग गया. ऐसा लगा जैसे "सिर मुंडाते ही ओले पड़े" वाली कहावत मेरे लिए ही बनी थी.

लोगों का मिला साथ-


मैंने अपने जानने वालों को बोल-बोल कर कुछ फ्री सैंपल दिए. अच्छा लगने पर दोबारा वही लोग खरीद भी लिए. साठ किलो अचार चार महीने में खत्म हो गया और सभी फीडबैक कमाल के थे. एक व्यक्ति ने भी ये नहीं कहा कि अच्छा नहीं है या ऐसा तो हमारे यहां बनता है.

लॉकडाउन खत्म होते ही फिर से कमर कसी और अबकी बार 200 किलोग्राम मिर्च खरीदी. अचार बन कर तैयार हुआ और लोग आर्डर देने लगे. कभी चार-पांच कभी छः-सात किलो. कभी कभी एक भी नहीं. मैं परेशान हो जाती, रातों को नींद नहीं आती, मैं रात में ही उठ कर दिन का बचा काम पूरा करने लगती. नींद तो ऐसे गायब हो जाती थी जैसे मेरी और उसकी दुश्मनी हो. ऐसे में डॉ अब्दुल कलाम जी का कोट मुझे अक्सर याद आता..." सपने वे नहीं जो आप नींद में देखते हैं, सपने वे हैं जो आपको नींद न आने दें." बस!! यही हाल मेरा भी था.

लगा जैसे मैं हार गई-


इसी बीच मैंने 5 किलो करेले का अचार बनाया, जो मैंने अपने घर के टेरिस गार्डन में उगाए थे. कमाल हुआ कि लोगों ने लिया भी और सराहा भी. इसी तरह 5 किलो हरी मिर्च का बनाया तो वो भी खूब भाया तीखा खाने वालों को.
लेकिन फिर से लॉकडाउन लग गया और एक बार फिर से मुझे झटका लगा. डिमांड कम हो गई, लोग नौकरी और बीमारी से जूझ रहे थे, अचार कहां से लेते. जो पैसे मेरे पास थे. वो सब लग चुके थे. बड़ा मुश्किल दौर चल रहा था.

मैं फिरकी की तरह से नाच रही थी, अपने और भाई के घर के बीच...और रिजल्ट लगभग 0 ही था. एक बार लगा कि मैं हार गई. अब कुछ नहीं हो सकता. बहुत भावुक हो गई , खूब रोई भी. अपना दर्द अपने फेसबुक वॉल पर पोस्ट कर दिया. लोग मदद के लिए हाथ बढाने लगे और मुझे कम ही सही पर आर्डर मिलने लगे.

पति के सामने ऐसे आई सच्चाई-


पति को नहीं बताया था अभी तक. मुझे पता था, जिस दिन पता चलेगा, भूकंप तो आएगा ही आएगा. पर मैं तब तक काम को जमा लेना चाहती थी, ताकी भूकंप की तीव्रता को कुछ कम कर सकूं. लेकिन सोचा हुआ कब होता है? मेरा सारा काम भाई के घर ही होता था, जो मेरे घर से लगभग एक किलोमीटर दूर था. मेरे पिता और मां जो मुझसे और भाई से नाराज रहते थे क्योंकि मैंने बेटी होते हुए भी उनकी बहू का साथ दिया, उन्होंने सीधे मेरे पति को फोन कर दिया और कहा कि "आप पूनम के सहारे मेरे घर पर कब्जा करना चाहते हैं?? मेरे पति जो इस बारे में कोई जानकारी नहीं रखते थे वो बोले..."पूनम को क्या जरूरत! उसके पास घर नहीं है क्या?" तब मेरे पिता ने भेद खोलते हुए कहा कि तभी तो पूनम अचार का बिजनेस यहां से कर रही है. कमरे पर कब्जा करके बैठी है. कल को घर भी कब्जा करवा लेंगे आप!

अपनों की पहचान-


इसके बाद पापा ने भाई को भी बता दिया कि मैंने दामाद को बता दिया है अब पूनम जाने और पूनम का काम.
जब भाई ने मुझे बताया तो लगा, मेरे पैरों के नीचे से जमीन सरक गई और मैं किसी गहरी खाई में गिरती चली जा रही हूं, जिसकी कोई थाह नहीं थी. हमेशा मां-बाप अच्छे हों, ये जरूरी नहीं है. जबकि करोना होने पर ऑक्सीजन सिलेंडर मेरी एक फेसबुक दोस्त अनुराधा के सहयोग से ही अरेंज किया था उनके लिए. बाकी के आठ सिलेंडर मेरे पति ने दूसरे शहरों से उपलब्ध कराए थे. खैर, घर पहुंची और जो होना था वो हुआ. दो दिन बाद मेरा सारा सामान मेरे घर पर था. अब मैं ज्यादा समय दे सकती थी अपने काम को. फिर एक हेल्पर भी रख लिया और धीरे-धीरे और तरह के अचार जोड़ती गई.

लोगों के उत्साह में नहीं आई कमी-


माउथ पब्लिसिटी मेरे लिए सोने पर सुहागा का काम करने लगी. लोग रिपीट आर्डर देने लगे. मैंने अपने अचार से सोडियम बेंजोएट और व्हाइट वेनेगर (सैंथटिक सिरका) को पूरी तरह से निकाल दिया और उसकी जगह मदर एप्पल साइडर का इस्तेमाल करने लगी. एप्पल साइडर हार्ट फ्रेंडली है, एसीडिटी नहीं होने देता और पाचन मे सहयोग देता है. इसकी वजह से अचार के दाम में बढ़ोतरी हुई, लेकिन लोगों ने उतने ही उत्साह से उसे भी खरीदा.

कांच का जार और शुद्ध सरसों का तेल अचार की जान बन गई. मसाले की सफाई, धुलाई, पिसाई, सब कुछ घर पर किया गया. मेरे अचार की शुद्धता, स्वच्छता, गुणवत्ता ही पहचान बन गई. लेबल बनवाना हो या लेबल डिजाइन करना हो. सबकुछ मैं खुद कराती थी. आज मेरे अचार के नीलकंठ ग्रीन गोमतीनगर में और दयाल पैराडाइज में पांच किलो वाले जार जा रहे हैं. शुरुआत के लिए ये बहुत है.

मैं ये मानती हूं कि मेरे पास वो सब कुछ है जो एक आरामदायक जीवन के लिए जरूरी होता है. घर, गाड़ी, ब्रांडेड कपड़े, लेकिन आप खुद को कहां पाते हैं उन मटेरियलस्टिक सामानों के बीच में. हम कोई कीमती मशीन नहीं हैं जिससे काम करा और साइड में छाड़ पोंछ कर कवर पहना कर रख दिया जाए. ये बात जब तक औरतें खुद नहीं समझेंगी. कोई उनकी मदद नहीं कर सकता. अगर मरने से पहले आप खुद के लिए सम्मान नहीं कमा सके खुद की नजरों में तो यकीनन आप सांस लेती हुई लाश से अधिक कुछ भी नहीं हैं. मैंने खुद को सांस लेती हुई लाश होने से बचाया है और ये आप किसी भी उम्र में कर सकते हैं. क्योंकि सम्मान की कोई उम्र नहीं होती. अगर मैं 51 साल की उम्र में कर सकती हूं तो कोई किसी भी उम्र में कर सकता है. बस जरूरत है सही दिशा में मजबूती से कदम बढ़ाने की और जुनून की हद तक अपने सपने को पूरा करने की.

मिल रहा पति का साथ-


आज मेरे पति मुझसे पूछते हैं. आम मिला कि नहीं तुम्हें. मंडी से मंगा लो. एक आदमी और बुला लो. यहां तक वे कभी कभी आम की फांकों में से गुठलियों को निकालने में मदद करते हैं. कभी अचार मिलाते वक्त पहुंच गए तो खुद भी पांच फिट का कलछुल चलाने लगते हैं.


समय की गति कब कौन से खूबसूरत मोड़ पर लाकर आपको हतप्रभ कर दे... कोई नहीं जानता. इसीलिये हर परिस्थिति के लिए हमें तैयार रहना चाहिए और वक्त आने पर खुद की ताकत को पहचानकर उसे तराशने में लग जाना चाहिए.