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High Court : क्या सास ससुर बहू से वापस ले सकते हैं बेटे की संपत्ति, हाईकोर्ट ने दिया बड़ा फैसला

Bombay High Court News: बॉम्बे हाई कोर्ट ने सीनियर सिटीजन ट्रिब्यूनल के एक फैसले पर सुनवाई करते हुए उस आदेश को खारिज कर दिया। जिसमें ट्रिब्यूनल ने बेटे की विधवा को गिफ्ट में मिली संपत्तियों को माता-पिता को सौंपने का फैसला सुनाते हुए गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था।आइए जानते है इसके बारे में विस्तार से.

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HR Breaking News (नई दिल्ली)।  बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक अपने अहम फैसले में कहा है कि बेटे की विधवा यानी बहू से माता-पिता दी हुई संपत्ति वापस नहीं मांग सकते हैं। कोर्ट ने एक सीनियर सिटीजन टिब्यूनल के फैसले पर सुनवाई कहते हुए उसे खारिज कर दिया और यह टिप्पणी की। ट्रिब्यूनल ने बेटे की मौत से पहले बहू को मिली संपत्ति की गिफ्ट डीड को रद्द करने का फैसला सुनाया था। हाईकोर्ट के जस्टिस संदीप मारने ने कहा कि ट्रिब्यूनल को संपत्ति की डीड रद्द करने का भी अधिकार नहीं था। यह उनके अधिकार क्षेत्र में भी नहीं आता था।


 


क्या था पूरा मामला


मुंबई के दंपत्ति ने 1996 में अपने बडे़ बेटे को अपनी एक फर्म में पार्टनर बनाया था। कुछ सालों बाद बेटे ने अपनी शादी के बाद पत्नी के साथ मिली दो और कंपनियों बना ली। बेटे ने पार्टनरशिप वाली फर्म की कमाई से 18 प्रॉपर्टीज खरीदीं और उन्हें बैंक से उन पर लोन ले लिया। 2013-14 में माता-पिता ने चेंबूर एक फ्लैग और बायकुला में एक प्रॉपर्टी गिफ्ट में दी। जुलाई, 2015 में बेटे की मौत हो गई। बेटे की मिली संपत्ति बहू के नाम आ गई। बहू ने संपत्ति में हिस्सेदारी देने से मना कर दिया। बहू के प्रॉपर्टी में हिस्सेदारी नहीं देने पर दंपति ने सीनियर सिटीजन ट्रिब्यूनल में केस किया। लंबी सुनवाई के बाद ट्रिब्यूनल ने मार्च,2018 में गिफ्ट डीड को खारिज करते हुए बहू को दोनों संपत्तियों का कब्जा दंपति को सौंपने का आदेश दिया। ट्रिब्यूनल ने अपने फैसले में यह भी कहा कि बहू (बेटे की पत्नी) 10 हजार रुपये मेंटीनेंस का भुगतान दिसंबर, 2016 से करे।


फैसले पर खड़े किए सवाल


ट्रिब्यूनल के फैसले को बहू ने हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाई कोर्ट के जस्टिस संदीप मार्ने वकील संजीव सांवत और हेरम्ब कदम की दलील से सहमत हुए कि भागीदार के अधिकार क्षेत्र में ट्रिब्यूनल को फैसला करने का कोई अधिकार नहीं है। कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह भी समाने आया है कि दंपति बहू से गुजारा भत्ता भी नहीं मांग सकते हैं क्योंकि बहू मेंटीनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पैरेंट्स एंंड सीनियर सिटीजन एक्ट की बच्चों के लिए तय की गई परिभाषा में नहीं आती है, लेकिन वह इस कानून के सेक्शन 4 के तहत उस स्थिति में देखरेख के लिए उत्तरदायी है अगर ये साबित हो जाता है कि बहू के पास दंपति की प्रॉपर्टीज का कब्जा है। कोर्ट में अपने फैसले में यह भी कहा कि ट्रिब्यूनल ने अपने फैसले में प्रॉपर्टीज की सूची है, लेकिन यह पता नहीं चलता है कि बेटे के माता पिता ने सही में उन संपत्तियों के अपनी व्यक्तिगत से बनाया था। वे सही में मालिक हैं।


कोर्ट ने कहा दायर करें अलग केस


हाईकोर्ट ने कहा कि सेक्शन 23 के तहत बेटे को संपत्तियां मिली थीं। ऐसे में माता पिता को देखरेख की जिम्मेदारी उसकी थी, माता पिता के ट्रिब्यूनल में जाने से पहले बेटे की मौत हो चुकी थी। ऐसे में बेटे की बहू कानूनी बाध्यता नहीं बनती है। बुजुर्ग दंपति की वकील तृप्ति भराड़ी ने कहा इन संपत्तियों का उपयोग उन कर्ज को चुकाने के लिए नहीं किया जा सकता है। जो बुजुर्ग दंपत्ति ने कभी नहीं लिए थे। जस्टिस मार्ने ने सुझाव दिया कि माता-पिता फर्म की संपत्ति को सौंपने की मांग करने के बजाय साझेदारी को भंग करने के लिए मुकदमा दायर करें। बुजुर्ग दंपति की वकील ने कोर्ट में कहा सास के पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है। वह दूसरी बच्चे के पास मजबूरी में रह रही हैं। जनवरी तक बैंक का 9.5 करोड़ रुपये का बकाया भी है। इस पर अदालत ने बेटे की पत्नी अदालत के अनुरोध किया तो बहू ने अपनी सास को जीवन भर गुजारा भत्ता देने पर सहमति जताई।